मन एक उपवन

झाड़ियाँ फिर से उग आई हैं – दुष्विचारों की। कुछ समय निकालना होगा सफ़ाई के लिए। जाने कब के मिट्टी में दबे पड़े बीज फूट पड़े। इतने सालों दबे रहकर भी इनमें जीवन शेष था ? या फिर हो सकता है, इन्हें हवा पानी कहीं न कहीं से मिल ही रहा होगा। वातावरण तो वही है, दूषित और इनके अनुकूल। तभी तो इतनी जल्दी चारों ओर फैल भी गयी हैं, इनकी बेढब शाखाएं। फूल भी इनमें अतिशीघ्र आ जाते हैं, बेशर्मों की तरह मुस्कराने के लिए। वैसे तो कोई बात नहीं, ये भी सृष्टि की ही रचना हैं। पर फिर ये सोख लेते हैं, अन्य पौधों का सारा पोषण, नमी और ऊष्मा। सुगन्धित कोमल लताओं को बोझिल कर देते हैं।  समीप ही उग रहे, अन्य जीवनदायी पौधों का रस चूसकर उन्हें यौवनावस्था तक पहुँचने में भारी प्रतिस्पर्धा देते हैं। कुछ नन्हे पौधे तो बेचारे शुरू में हे दम तोड़ देते हैं व अधिकाँश अपनी विशिष्टता छोड़कर मामूली ही बन जाते हैं। जी न सके पर सांस तो चलती रहेगी, यही सोचकर जीवन से समझौता कर लेते हैं। दाद तो देनी चाहिए, उन एक-आध साहसी पौधों की, जो बार- बार विषाक्त हवाओं में रहकर भी, गंदे पराग को झाड़ देते हैं। देखा जाये तो, वैसे ये ज़िम्मेदारी माली की बनती है। पर वो बेचारा भी क्या करे ? जितने परिश्रम से खरपतवार साफ़ करता है, उतनी तेज़ी से और निकल आते हैं। कैसे वो अपने बगीचे को पहिए लगाकर प्रदूषण से दूर शुद्ध वातावरण में ले जाए ? यहाँ तो द्वेष भरा पराग लगातार झरता जा रहा है। सलाह यही है कि उसे कीटनाशक छिड़काव करना ही होगा। यद्यपि इसका कुछ दुष्प्रभाव अच्छे पौधों पर भी पड़ेगा मगर हमेशा सुरक्षात्मक रवैया अपनाने से बात बनती भी नहीं है। अगर इन ज़हरीले पौधों को जड़ से समाप्त करना है, सदा सदा के लिए तो आक्रामक कार्रवाई करनी ही पड़ेगी। फिर चाहे कुछ मासूम पौधे भी नष्ट हो जाएँ। ये कीटनाशक रसायन माली की अपनी श्वास में भी तो घुल जायेंगे। हूँ….. ।।। अपने बगीचे  बचाने के लिए, ये शक्ति तो उसे जुटानी ही होगी। फिर सतत सींचना होगा, एक – एक पौधे को, प्रेम से, विश्वास से। तभी यह उपवन प्रभु का मंदिर बन पायेगा जिसमें मधुर, अमृतमयी संगीत स्वतः ही प्रस्फुटित होगा।

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